झील के जल सी ठहरी है एक ज़िंदगी
आप ही छू के लहरें उठा दीजिये,
मेरे घर अन्धेरों का मेला लगा
एक दीवाली यहाँ भी मना लीजिये।
बांध लो तुम जो ज़ुल्फें सवेरा सा हो
और बिखेरो यहाँ रात हो जायेगी,
चाहे मुँह फेर कर यूँ ही बैठे रहो
तुम से फिर भी मेरी बात हो जायेगी,
मुद्दतों से न सूरज इधर आ सका-
दूरियों की घटायें घटा दीजिये।
जाने चन्दा से रूठी है क्यूँ चाँदनी
नींद भी रूठ बैठी मेरी आँख से,
रूठी-रूठी लहर आज तट से लगे
पर न भँवरा ये रूठा कँवल पाँख से,
मन तुम्हारा भी दरपन सा हो जायेगा-
धूल इस पर लगी जो हटा दीजिये।
जब भी आँखों में झाँका घटायें दिखीं
अब तो बरसेंगी ये सोचने मन लगा,
तन झुलसता रहा, पर न बारिश हुयी
प्यासा-प्यासा सा हर बार सावन रहा,
स्वांति की न सही बूँद आँसू की दे
प्यास चातक की कुछ तो बुझा दीजिये।
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